अखिला श्रीनावसन की सफलता और सघर्ष की कहानी, हिंदी में

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अखिला श्रीनावसन

आज 5,000 करोड़ के श्रीराम ग्रुप की श्रीराम लाइफ इंश्योरेंस कंपनी में मैनेजिंग डायरेक्टर के पद पर आसीन अखिला श्रीनावसन ने अपने सफर की शुरुआत सन् 1986 में एक मैनेजमेंट ट्रेनी के रूप में की थी लेकिन जब वह एक नन्ही बालिका थीं, तभी से यह बात जान गई थी कि किसी रॉर्टकट का सहारा न लेते हुए अगर सधे हुए कदमों से चला जाए तो कामयाबी निश्चित तौर पर मिलकर ही रहती है।



अखिला श्रीनावसन का जन्म तिरुचिरापल्ली, जिसे त्रिची भी कहा जाता है जो भारत के तमिलनाडु राज्य में एक नगर है । अखिला बचपन से ही हर काम को गंभीरता व लगन से करने में यकीन रखती थीं चाहे पढ़ाई, खेल या कोई और गतिविधियां, क्योकि उन्होंने हर जगह अपना सर्वोच्च स्थान बनाकर यह सिद्ध कर दिया कि अगर इंसान चाहे तो उसके लिए कुछ भी नामुमकिन नहीं है।

मध्यम वर्ग में जन्मी और सीधी-सादी जिंदगी जीने वाली अखिला की सोच और जीवन पर उनकी माँ का गहरा प्रभाव पड़ा। वह कहती हैं की एक साधारण सी गृहिणी होने के बावजूद मेरी माँ ने मुझे धैर्य की महत्वपूर्णता का पाठ पढ़ाया। 

उनके पिता पी.डब्ल्यू.डी. में एग्जीक्यूटिव इंजीनियर के पद पर काम करते थे और वह विख्यात दादा जी, जो संस्कृत के महान् ज्ञाता थे, जो समकालीन हाई कोर्ट के जज दीवान के. एस. रामास्वामी के पोते हैं।

उनकी शुरुआती शिक्षा त्रिची में ही हुई और माध्यमिक शिक्षा मद्रास में हुई और दोबारा अपनी हायर सेकेंडरी की शिक्षा के लिए त्रिची गई, यहां उन्होंने आर. एस. के. हायर सेकेंडरी स्कूल में प्रवेश लिया। अखिला श्रीनावसन कहती है कि इस तरह के प्रतिष्ठित स्कूल में पढ़ना मेरे लिए सौभाग्य की बात थी। 

स्कूल में अर्थशास्त्र उनका प्रिय विषय था, जिसमें उन्होंने त्रिची के ही सीथालक्ष्मी रामास्वामी कॉलेज से ग्रेजुएशन व पोस्ट ग्रेजुएशन किया और दोनों ही बार उन्होंने ‘बेस्ट स्टूडेंट अवार्ड’ जीता। पढ़ाई करने की अदम्य लालसा होने के कारण और कुछ करने को उकसाती रहती थी, इसलिए मद्रास यूनिवर्सिटी से उन्होंने अर्थशास्त्र में ही एम. फिल, की और फिर माइक्रो- क्रेडिट में पी-एच.डी.।

यह सच है कि अखिला बचपन से ही भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई.ए.एस.) को जॉइन करने का सपना उनकी आँखों में पलने लगा था, लेकिन कभी-कभी उन्हे अपनी इच्छाओं की उड़ान को परिस्थितियों की वजह से बीच में ही रोक लगानी पड़ती है। 

जिस समय वह एम. ए. कर रही थीं, इस दौरान उनका विवाह मद्रास में रहने वाले एक चार्टर्ड एकाउंटेंट हरिहरन श्रीनिवासन से हो गया। विवाह के बाद जीवन में बदलाव आना स्वाभाविक ही होता है और ऐसा अखिला के साथ भी हुआ। एम. फिल करने के बाद उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया और लगातार ढाई वर्ष तक वह उसका पालन-पोषण करने के लिए घर में ही रहीं और इसी बीच माँ की भूमिका निभाते हुए भी वह आई.ए.एस. की आरंभिक परीक्षा की तैयारी करती रहीं।


अखिला श्रीनावसन का करियर

बढ़ते दायित्वों के बीच जब उन्हें लगा कि इस तरह वह अपने बेटे पर पूरा ध्यान नहीं दे पा रही हैं, उन्होंने परीक्षा देने का विचार त्याग दिया। लेकिन वह यों ही खाली बैठने वालों में से नहीं थी, इसलिए उन्होंने पी-एच.डी. करके अध्यापन को अपना प्रोफेशन बनाने का निर्णय लिया।

सन् 1986 में एक सुबह अखबार पढ़ते हुए अखिला की नजर एक अलग तरह के विज्ञापन पर पड़ी। वह विज्ञापन श्रीराम ग्रुप का था, जिन्होंने एग्जीक्यूटिव ट्रेनीज के लिए आवेदन-पत्रों की मांग की थी। अखिला हालांकि अध्यापन को अपना प्रोफेशन बनाने का मन बना चुकी थीं, फिर भी उन्होंने कुछ अलग हटकर करने के खयाल से अप्लाई कर दिया।

वह कहती हैं, उन्हें ऐसे एग्जीक्यूटिव ट्रेनी की तलाश थी जिसकी शैक्षिक पृष्ठभूमि अच्छी हो, अन्य गतिविधियों में अच्छा हो, बेशक वह एम.बी.ए. न हो। मैं न तो एम.बी.ए. थी, न ही चार्टर्ड एकाउंटेंट, जो इस तरह के कॉरपोरेट सेक्टर के लिए उपयुक्त मानी जाती, लेकिन फिर भी मैंने सोचा अप्लाई करने में बुराई क्या है? हजारों आवेदनों में से चयन प्रक्रिया व लिखित परीक्षा, मौखिक साक्षात्कार व समूह विचार-विमर्श के द्वारा 12 लोगों का चयन किया गया था, जिसमें से एक मैं भी थी। उसके बाद तो मेरे करियर की उड़ान को जैसे पंख ही लग गए। उस समय ग्रुप में गिनी-चुनी ही महिला ट्रेनीज थीं इसलिए अखिला का वहाँ काम करना किसी चुनौती से कम न था।


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वह यह समझ गई थी कि जहाँ वह अपने सपनों को पूरा करने के साथ-साथ उपलब्धियों के शिखर को भी छू सकती हैं। सन् 1987 में मार्केटिंग मैनेजर बनने से उन्हें देश के कोने-कोने में जाने का अवसर मिला। उन्होंने अपने बेहतरीन वक्ता होने के गुण का इस्तेमाल कंपनी की कार्यशैलियों व नीतियों के बारे में लोगों को अवगत कराने के लिए किया। इससे कंपनी की छवि पर एक सकारात्मक प्रभाव पड़ा। 

उनकी मेहनत और जज्बा रंग लाया। सन् 1993 में उन्हें जनरल मैनेजर मार्केटिंग नियुक्त किया गया और सन् 1994 में प्रेसीडेंट। वर्ष 2000 में मैनेजिंग डायरेक्टर के पद पर उनका आसीन होना उनके सहयोगियों व कंपनी के अधिकारियों को कोई हैरानी में डालने की बात नहीं थी, क्योंकि सभी जानते थे कि अखिला में बेजोड़ क्षमताएँ हैं और वह इस पद की अधिकारिणी हैं। चेहरे पर भरपूर आत्मविश्वास, होंठों पर मुसकान और आँखों में चमक लिये अखिला ने उस समय कहा था, “कंपनी और समाज के विकास में योगदान देना मेरे लिए सबसे बड़ी संतुष्टि की बात है।”

उन्हें इस ग्रुप का वातावरण व कार्यशैली बहुत अधिक पसंद आई। सन् 1986 में बिजनेस के हिसाब से वह बहुत बड़ा नहीं था, पर उस समय उनके चेयरमैन ने इस तरह से उन लोगों के सामने आनेवाले दस-बीस वर्षों का खाका खींचा कि उनके मन में उस संगठन को एक विस्तृत आकार देने की बात और निष्ठा से उसके प्रति समर्पित होने की बात इस तरह बैठी कि फिर उन्होंने न पीछे मुड़कर देखा, न ही किसी और राह को अपनी मंजिल बनाने की बात सोची। सारा ध्यान संगठन के विकास पर केंद्रित हो गया। अखिला कहती हैं, “एक

अपनी कंपनी के वैश्विक होने के सपने को सच करते हुए अखिला ने श्रीराम इन्वेस्टमेंट लिमिटेड को एक छोटे से कॉरपोरेट से एक विशाल साम्राज्य में बदल दिया है। लगातार तीन वर्षों तक उन्हें बेस्ट एग्जीक्यूटिव’ की उपाधि से सुशोभित किया गया। 

सन् 1998-99 में भारत में आर्थिक संकट उभरा तो हर फाइनेंस कंपनी के बाहर पैसा डूब जाने की बात को लेकर परेशान लोगों की भीड़ जमा हो गई और इस संकटपूर्ण स्थिति में लोगों के विश्वास को बनाए रखते हुए बिजनेस को न सिर्फ सँभालना वरन् उसका विस्तार करना अखिला की प्रोफेशनल जिंदगी की सबसे बड़ी चुनौती थी, लेकिन जब निवेशकों ने अखिला का साथ दिया तो उन्हें भी एहसास हुआ कि कंपनी की नींव कितनी पुख्ता है, जो इस उथल-पुथल और अविश्वसनीयता के समय में भी हिल नहीं पाई।

आख़िला के लिए चार साल पहले लाइफ इंश्योरेंस बिजनेस को सँभालना उनके लिए किसी चुनौती से कम नहीं था, क्योंकि बहुत देर में कंपनी के इस क्षेत्र में प्रवेश करने से उसे बहुत मजबूत कॉम्पिटीटर का सामना करना पड़ा। वह कहती हैं कि एक नए बिजनेस को संभालने की अपनी तरह की चुनौतियां होती हैं। फिर भी, पहले वर्ष में कंपनी 85,000 पॉलिसियाँ बेचकर 114 करोड़ का व्यवसाय करने में सफल हो गई।

आख़िला कहती है कि मैं चाहती हूँ कि मुझे एक व्यक्ति’ की तरह देखा जाए और काम करते समय मेरे दिमाग में यह बात नहीं रहती कि मैं एक औरत हूँ और न ही मेरी कंपनी में मुझे कभी इस बात का एहसास ही दिलाया गया है।

उपलब्धियां 

केवल काम करने में यकीन रखने वाली अखिला बेशक मुख्यधारा से हटकर रहना पसंद करती हैं, किसी तरह के प्रचार से वह दूरी बनाए रखती हैं परन्तु सम्मान व पुरस्कार उनसे दूर नहीं रहते। 

समाज-कल्याण व ग्रामीण विकास के क्षेत्र में उनके असाधारण योगदान ने उन्हें कॉम्पेक कांटेस्ट में तीन पुरस्कार विजेताओं में से एक की श्रेणी में ला खड़ा किया, जिसमें 70 सर्वोत्तम कॉरपोरेट हस्तियों ने हिस्सा लिया था। 

सन् 1999 में एफ. आई.सी.सी. आई., दिल्ली के तत्त्वावधान में बिजनेस वर्ल्ड द्वारा स्थापित सोशल रेस्पोंसिवनेस अवार्ड का उन्हें विजेता घोषित किया गया। 

सन् 2000-01 में अखिला ने फिक्की लेडीज ऑर्गेनाइजेशन द्वारा स्थापित आउटस्टैंडिंग वूमन प्रोफेशनल अवार्ड जीता, मई 2002 में उन्होंने दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से अवार्ड प्राप्त किया।

अखिला का मानना है कि “ये अवार्ड कंपनी की प्रतिष्ठा बढ़ानेवाले तंत्र की तरह काम करते हैं। अपनी कंपनी की साख की वजह से ही में आज इस मुकाम तक पहुँच पाई हूँ। 

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